जी, जीते तो मोदी और शाह ही है कोई शक हो तो दूर कर लीजिये । आप ये सोच रहे होंगे की जिस पार्टी ने 67 सीट जीती मै उसे विजेता ना मानकर 3 सीट जितने वाली पार्टी को जीता हुआ क्यों कह रहा हूँ ! गौर कीजियेगा तो सियासत में मोदी और शाह ने एक बार फिर जीत दर्ज की है जिसमे इमानदारो की राजनीति हार गयी है ! केजरीवाल जब बनारस से लौटे तो टूटे और बिखरे हुए ,मानो की सियासत उनको खड़ा रहने तक के लिए 2 धूर जमीन तक देना नही चाह रही हो । लेकिन इसको साफगोई कहिये या फिर नई राजनीति जहा केजरीवाल ने घर घर का दरवाजा खटखटा कर माफ़ी के साथ वोट माँगा और जनता का गुस्सा प्यार में तबदील हो गया । बीजेपी अपने हनीमून के दौर में थी जहा केजरी उसको केवल हारा हुआ वजीर के तौर पर दिख रहा था और यही सबसे बड़ी चुक हो गयी । मौका हाथ से निकलता देख मोदी और शाह की जोड़ी ने एक और दाव बिछाया जिसमे एक क्रांतिकारी नेता के सामने उसी आन्दोलन के गर्भ में बड़ी होने वाली बेदी को सामने ला कर खड़ा कर दिया । मतलब साफ़ था की एक इमानदार के सामने दूसरा इमानदार और इन इमानदारो में से जो भी जीते हारेगी ईमानदारी ही और दारू ,जात-पात, धर्म की सियासत बची रहे और मामला हिट हो जाये ।
मोदी और शाह की बिसात में मोहरा बेदी और केजरी बने जिसमे एक ही आन्दोलन के गर्भ से जन्मे दो बच्चे एक दुसरे के खिलाफ हो जाये और पुरातन पॉलिटिक्स बची रहे । नतीजे आये ,बेदी हार गयी ,उनकी इमानदारी हार गयी, उनका अच्छा प्रशासनिक अनुभव हार गया और जीती मोदी और शाह की सियासत जिसमे वो बच निकले और उनकी राजनीति भी । दिल्ली की हार ने भले ही बीजेपी को कटघरे में खड़ा कर दिया हो लेकिन अप्रसांगिक किरण बेदी हो गयी । केजरीवाल जीत तो गये लेकिन उनकी साथी की ईमानदारी हार गयी ,अन्ना हार गये ,आंदोलन हार गया ,अच्छी राजनीति हार गयी और एक बार फिर से राजनीति बचते बचाते अपना रास्ता निकाल ही ले गयी । सोचना देश की जनता को है कि क्या ऐसी बिसात से हर बार इमानदार और उसकी ईमानदारी हारेगी या फिर कभी राजनीति की बिसात बिछाने वाले भी खुद प्यादे बन मात खायेंगे ।
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दिल कि लिखें तो कहां लिखें ...यहां लिखें कि वहां लिखें ..हमारी कलम में अगर हो स्याही किसी और की, तो फिर लिखें तो क्या लिखें।
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